माना तू ख़फ़ा है मुझसे,
पर मेरी नज़्मों से नाराज़गी कैसी,
इन्होंने तो नहीं तोड़ा दिल तेरा,
फिर इन पर तेरी बेरुखी की बेचारगी कैसी।
इनमें ही मेरा इश्क़ बसता,
इनमें ही तेरा अक्स दिखता,
हाँ, हो सकता है दिखे होंगे कभी साथ मेरे,
पर होते हैं ये अक्सर पास तेरे।
इनसे तो तूने घंटों बातें की हैं,
इनके जरिए मुझसे जाने कितनी मुलाक़ातें की हैं,
इन्हीं के सजदों में कभी तेरे आँसू बहे थे,
इन्हीं की पनाहों में छिपे तेरे कहकहे थे।
इन्हीं में तेरे हर मिज़ाज को मैंने पिरोया है,
इन्हीं ने अकेले में तेरे ज़ख्मों को भी धोया है,
इन नज़्मों के ख़ुमार में कितनी ही शब ढली,
इन्ही की मखमली चादर में कितनी सहर खिली।
इनपे तेरा हक़, तेरा ही ज़ोर रहेगा,
तेरे होने से बोल उठता था हर लफ्ज़,
तेरे बिन शायर भी क्या और कहेगा,
इनका वजूद है तब ही तक,
जब तक तू साथ है,
वार्ना मरे हुए शेरों पे कौन कहता है,
“क्या बात है”।